आदर्श एवं सिद्धांतों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले श्री गुरु तेग बहादुर जी का इतिहास में अद्वितीय स्थान है। वह महान विचारक, योद्धा, आध्यात्मिक व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने धर्म, मातृभूमि और लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। उन्हें हिंद दी चादर कहा जाता है।
श्री गुरु तेग बहादुर का जन्म अमृतसर में हुआ था। उनके बचपन का नाम त्यागमल था। मात्र 14 वर्ष की आयु में मुगलों के खिलाफ हुए युद्ध में उनकी वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने उनका नाम त्यागमल से तेग बहादुर (तलवार का धनी) रख दिया। उस वक्त औरंगजेब के दरबार में एक पंडित हर रोज गीता के श्लोक पढ़ता और उसका अर्थ सुनाता था। वह पंडित कुछ श्लोक छोड़ दिया करता था। एक दिन पंडित बीमार हो गया और औरंगजेब को गीता सुनाने के लिए उसने अपने बेटे को भेज दिया। पंडित अपने बेटे को बताना भूल गया कि उसे किन-किन श्लोक का अर्थ औरंगजेब के सामने नहीं बताना है। पंडित के बेटे ने औरंगजेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया। औरंगजेब को दूसरे धर्म की प्रशंसा व शिक्षाएं सहन नहीं थीं। उसने कश्मीर के गवर्नर इफ्तिकार खां को कहा कि सभी कश्मीरी पंडितों को इस्लाम अपनाने के लिए कहा जाए। इस पर सभी कश्मीरी पंडित गुरु जी के पास आए। गुरु जी ने कह दिया यदि औरंगजेब उनसे इस्लाम धारण नहीं करा पाया तो कश्मीरी पंडित भी इस्लाम धारण नहीं करेंगे। इस पर औरंगजेब ने श्री गुरु तेग बहादुर को बंदी बनाने के आदेश दिए। 1665 में श्री गुरु तेग बहादुर व उनके तीन शिष्यों भाई मतिदास, भाई दयाला तथा भाई मतिदास को बंदी बनाया गया। तीनों शिष्यों को गुरु जी की आंखों के सामने मार दिया गया लेकिन गुरु जी अपने वचन से टस से मस नहीं हुए। 1675 में औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में श्री गुरु जी का शीश काट दिया। आज उसी स्थान पर गुरुद्वारा शीशगंज है।